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जब से स्मृति ईरानी ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय संभाला है, पहले तो कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया और उसके बाद इस बाबत एक तूफ़ान सा मचा हुआ है. सबके अपने-अपने विचार हैं; कोई इसकी आलोचना कर रहा है तो कोई उनका बचाव कर रहा है. मैने कई लोगों को पढ़ा जो यह तर्क देते हैं की किसी की योग्यता को उसकी कार्य क्षमता से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिये. स्वयं स्मृति ने भी यही कहा की उनके काम को देखा जाना चाहिये न कि उनकी शिक्षा को लेकर बवाल मचाना चाहिये. स्मृति ईरानी के संदर्भ में कई लोगों के उदाहरण भी दिये गये जैसे की आइनस्टाइन, स्टीव जॉब्स इत्यादि. इन सब ने अपनी औपचारिक शिक्षा न होने के बावज़ूद इस दुनिया को बहुत कुछ दिया.
अब एक-एक कर के नये मामले सामने आ रहे हैं; पहला यह की स्मृति नें दो अलग-अलग चुनावों में अलग-अलग योग्यता बताई है. अर्थात उन्होने नें झूठा सपथपत्र चुनाव आयोग को दिया. अभी यह मामला ठंढा भी नही हुआ था कि एक और बात सामने आई की उन्होनें प्रवेश तो लिया एक पाठ्यक्रम में पर परीक्षा नहीं दी और इससे एक बात और सामने आई की यह दूसरा सपथपत्र भी झूठा था.
पर यहाँ एक बात जो सामने आती है, वो है एक मनव संसधान विकास मंत्री का झूठा सपथ पत्र देना. वैसे तो हमारे नेता झूठ बोलने के लिये बदनाम हैं ही, तो इस बत पर इतना बवाल एक सड़ी-गली बात सी लगती है. इसमे वो ताज़गी नही है जो इस तरह के मामले में होनी चाहिये; इसमें वो मिर्च मसाला भी नहीं है. मुझे स्मृति जी से सहानुभूति है की उन्होने ने अपने जीवन में उन तमाम लोगों की वो बातें नहीं पढी या सुनीं जिन्हे आज उनके पक्ष मे लोग कह रहे हैं या वे स्वयं कह रही हैं. काश की उन्होने उन लोगों की जीवनियाँ पढ़ी होती जिन्होने बिना औपचारिक शिक्षा के भी अपनी योग्यता साबित की; तो जिस बात की सफाई उन्हे आज देनी पड रही है वो शायद नहीं देनी पड़ती. जिस योग्यता पर भरोसा करने की बत उन्होने ने कही उसपर खुद भरोसा होता तो शायद हीनता से ग्रस्त वह झूठ नही बोलतीं और वो दिखाने की कोशिस नही करतीं जो औपचारिक योग्यता नही थी.
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